गहन है यह अन्ध कारा

पीछे

      गहन है यह अन्ध कारा;
      स्वार्थ के अवगुण्ठनों से
      हुआ है लुण्ठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते हैं लोग ज्यों मुँह फेरकर,
इस गगन में नहीं दिनकर,
    नहीं शशधर, नहीं तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नहीं आता समझ में,
    कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय, मुझे यह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित देह की
खोजता-फिरता, न पाता हुआ,
           मेरा हृदय हारा।  

पुस्तक | अणिमा कवि | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | कविता छंद | मुक्त छन्द