यमुना के प्रति

पीछे

स्वप्नों-सी उन किन आँखों की
पल्लव छाया में अम्लान
यौवन की माया-सा आया
मोहन का सम्मोहन ध्यान ?

गन्धलुब्ध किन अलिबालों के
मुग्ध हृदय का मृदु गुंजार
तेरे दृग-कुसुमों की सुषमा
जाँच रहा है बारम्बार ?

यमुने, तेरी इन लहरों में
किन अधरों की आकुल तान
पथिक प्रिया-सी जगा रही है
उस अतीत के नीरव गान ?

बता, कहाँ अब वह वंशीवट ?
कहाँ गये नटनागर श्याम ?
चल-चरणों का व्याकुल पनघट
कहाँ आज वह वृन्दाधाम ?
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किस अतीत के स्नेह-सुहृद को
अर्पण करती तू निज ध्यान-
ताल-ताल के कम्पन से द्रुत
बहते हैं ये किसके गान ?

विहगों की निद्रा से नीरव
कानन के संगीत अपार,
किस अतीत के स्वप्न-लोक में
करते हैं मृदु-पद-संचार ?
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कहाँ कनक-कोरों के नीरव
अश्रु-कणों में भर मुसकान,
विरह-मिलन के एक साथ ही
खिल पड़ते वे भाव महान !

कहाँ सूर के रूप-बाग के
दाड़िम, कुन्द, विकच अरविन्द,
कदली, चम्पक, श्रीफल, मृगशिशु,
खंजन, शुक, पिक, हंस, मिलिन्द !

एक रूप में कहाँ आज वह
हरि-मृग का निर्वैर विहार,
काले नागों से मयूर का
बन्धु-भाव, सुख सहज अपार !
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उन्हें खींच निस्सीम व्योम की
वीणा में कर-कर झङ्कार,
गाते हैं अविचल आसन पर
देवदूत जो गीत अपार,

कम्पित उनके करुण करों में
तारक तारों की-सी तान,
बता, बता, अपने अतीत के
क्या तू भी गाती है गान ?
 

पुस्तक | परिमल कवि | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | कविता छंद | लावनी