जागो फिर एक बार

पीछे

जागो फिर एक बार!

समर में अमर कर प्राण,
गान गाये महासिन्धु-से
सिन्धु-नद-तीरवासी!-
सैन्धव तुरंगों पर
चतुरंग चमू संग;
“सवा-सवा लाख पर
एक को चढ़ाऊँगा,
गोविन्द सिंह निज
नाम जब कहाऊँगा।“
किसने सुनाया यह
वीर-जन-मोहन अति
दुर्जय संग्राम-राग,
फाग का खेला रण
बारहों महीनों में?
शेरों की माँद में
आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार!
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“महामन्त्र ऋषियों का
अणुओं-परमाणुओं में फूँका हुआ-
तुम हो महान्, तुम सदा हो महान्,
है नश्वर यह दीन भाव,
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम,
पद-रज-भर भी है नहीं
पूरा यह विश्व-भार-“
जागो फिर एक बार!

पुस्तक | परिमल कवि | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | लम्बी कविता छंद |