भए दस मास पूरि भै घरी

पीछे

जन्म खण्ड-

भए दस मास पूरि भै घरी। पदुमावति कन्या औतरी।।
जनहु सुरूज किरिन हुति काढ़ी। सूरुज करा घाटि वह बाढ़ी।।
भा निसि मांह दिन क परगासू। सब उजियार भएउ कबिलासू।।
अतें रूप मूरति परगटी। पूनिउँ ससि सो खीन होई घटी।।
घटतहि घटत अमावस भई। दुइ दिन लाज गाड़ि भुइँ गई।।
पुनि जौं उठी दुइजि होइ नई। निहकलंक ससि बिधि निरमई।।
पदुम गंध बेधा जग बासा। भँवर पतंग भए चहुँ पासा।।
     अतें रूप भइ कन्या जेहि सरि पूजि न कोइ।
     धनि सो देस रूपवंता जहाँ जनम अस होइ।। 
 

पुस्तक | पद्मावत कवि | मलिक मुहम्मद जायसी भाषा | अवधी रचनाशैली | महाकाव्य छंद | दोहा-चौपाई