जेति संपति कृपन कैं, तेती सूमति जोर

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1.    जेति संपति कृपन कैं, तेती सूमति जोर।
       बढ़त जात ज्यौं ज्यौं उरज, त्यौं त्यौं होत कठोर।। 


2.    नव नागरितन-मुलुकु लहि जोबन-आमिर-जौर।
       घटि बढ़ि तैं बढ़ि घटि रकम करीं और की और।। 


3.    कन दैबौ सौंप्यौ ससुर, बहू थुरहथी जानि।
       रूप-रहचटैं लगि लग्यौ माँगन सबु जगु आनि।। 


4.    संगति-दोषु लगै सबनु, कहै ति साँचे बैन।
       कुटिल-बंक-भ्रुव-सँग भए कुटिल, बंक-गति नैन।।

पुस्तक | बिहारी सतसई कवि | बिहारीलाल भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | दोहा