जेठ जरै जग बहै लुवारा
पीछेनागमती वियोग खण्ड-
जेठ जरै जग बहै लुवारा। उठै बवंडर धिकै पहारा।।
बिरह गाजि हनिवंत होइ जागा। लंका डाह करै तन लागा।।
चारिहुँ पवन झँकोरै आगी। लंका डाहि पलंका लागी।।
दहि भइ स्याम नदी कालिंदी। बिरह की आगि कठिन असि मंदी।।
उठै आगि औ आवै आँधी। नैन न सूझ मरौ दुख बाँधी।।
अधजर भई माँसु तन सूखा। लागेउ बिरह काग होउ भूखा।।
माँसु खाइ अब हाड़न्ह लागा। अबहूँ आउ आवत सुनि भागा।।
परबत समुँद मेघ ससि दिनअर सहि न सकहिं यह आगि।
मुहमद सती सराहिअै जरै जो अस पिय लागि।।