पतनोन्मुख

पीछे

हमारा डूब रहा दिनमान!

मास-मास दिन-दिन प्रतिपल
उगल रहे हो गरल-अनल,
जलता यह जीवन असफल;
हिम-हत-पातों-सा असमय ही
झुलसा हुआ शुष्क निश्चल!

विकल डालियों से
झरने ही पर हैं पल्लव-प्राण-
हमारा डूब रहा दिनमान!

पुस्तक | परिमल कवि | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | कविता छंद |