जेहि पाए बैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि

पीछे

1.    प्रेमफाँस में फँसि मरै, सोई जिए सदाहि।
        प्रेममरम जाने बिना, मरि कोउ जीवत नाहि।।


2.    जग मैं सबतें अधिक अति, ममता तनहिं लखाय।
        पै या तनहूँ तें अधिक, प्यारो प्रेम कहाय।।


3.    जेहि पाए बैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि।
        सोइ अलौकिक, सुद्ध, सुभ, सरस, सुप्रेम कहाहि।।


4.    कोउ याहि फाँसी कहत, कोउ कहत तरवार।
        नेजा, भाला, तीर, कोउ कहत अनोखी ढार।।


5.    पै मिठास या मार के, रोम रोम भरपूर।
       मरत जियै, झुकतो थिरैं, बनै सु चकनाचूर।।

पुस्तक | प्रेमवाटिका कवि | रसखान भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | दोहा
विषय | प्रेम,