प्रेम हरी को रूप है, त्यों हरि प्रेमसरूप
पीछे1. इकअंगी बिनु कारनहि, इकरस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान।।
2. डरै सदा, चाहै न कछु, सहै सबै जो होय।
रहै एकरस चाहकै, प्रेम बखानो सोय।।
3. प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम को फाँस।
प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस।।
4. प्रेम हरी को रूप है, त्यों हरि प्रेमसरूप।
एक होई द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरु धूप।।
5. ज्ञान, ध्यान, विद्या, मती, मत, विश्वास, विवेक।
बिना प्रेम सब धूर हैं, अग जग एक अनेक।।