दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर

पीछे

पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी,
मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।

 

और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है। 
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर। 

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |