सिर पर कुलीनता का टीका

पीछे

‘‘सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका,
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते,
                       ऐसे भी कुछ नर होते हैं,
                       कुल को खाते औ’ खोते हैं।
विक्रमी पुरुष लेकिन, सिर पर
चलता न छत्र पुरखों का धर,
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत् से पाता है।
                      सब उसे देख ललचाते हैं,
                      कर विविध यत्न अपनाते हैं।  

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |