आर्यावर्त्त-जैसी विचित्र समाज-व्यवस्था मैंने कहीं नहीं देखी है

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आर्यावर्त्त-जैसी विचित्र समाज-व्यवस्था मैंने कहीं नहीं देखी है। यहाँ इतना स्तर-भेद है कि मुझे आश्चर्य होता है कि यहाँ के लोग कैसे जीते हैं। फिर यहाँ एक से बढ़कर एक ऐसे सत्पुरुष और सती स्त्रियाँ देखी हैं कि मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि ये देवता-समान लोग क्यों मर जाते हैं! यहाँ का जीवन और मृत्यु दोनों ही मेरे लिए पहेली है। ........... यही देखो, तुम यदि किसी यवन-कन्या से विवाह करो तो इस देश में यह एक भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जाएगा। परन्तु यह क्या सत्य नहीं है कि यवन-कन्या भी मनुष्य है और ब्राह्मण-युवा भी मनुष्य है ! महामाया जिन्हें म्लेच्छ कह रही हैं वे भी मनुष्य हैं। भेद इतना ही है कि उनमें सामाजिक ऊँच-नीच का ऐसा भेद नहीं है। जहाँ भारतवर्ष के समाज में एक सहस्र स्तर हैं वहाँ उनके समाज में कठिनाई से दो-तीन होंगे। बहुत कुछ इन आभीरों के समान समझो। भारतवर्ष में जो ऊँचे हैं वे बहुत ऊँचे हैं, जो नीचे हैं उनकी निचाई का कोई आर-पार नहीं; परन्तु उनमें सब समान हैं। उनकी स्त्रियों में रानी से परिचारिका तक के और गणिका से लेकर वार- विलासिनी तक के सैकड़ों भेद नहीं हैं। वे सब रानी हैं, सब परिचारिका हैं। तुम उनके दुर्धर्ष रूप को ही जानते हो, उनके कोमल हृदय को एकदम नहीं जानते।

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एक जाति दूसरी को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़कर अशान्ति का कारण और क्या हो सकता है, भट्ट ! तुम्हीं ऐसे हो जो नर-लोक से किन्नर-लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय, एक ही करुणायित चित्त को हृदयंगम करा सकते हो।

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भट्टिनी कहती हैं कि जिन्हें तुम म्लेच्छ समझते हो उनकी स्त्रियों में रानी से लेकर परिचारिका तक के और गणिका से लेकर वार-वनिता तक के सैकड़ों स्तर नहीं हैं। यह मेरे लिए एकदम विचित्र संवाद है। मेरा मन कहता है कि स्वर्ग उसी समाज में होगा। यह जो दुःख-ताप है, निर्यातन है, घर्षण है, परदाराभिमर्श है, यह विकृत समाज-व्यवस्था के विकृत परिणाम हैं। 

पुस्तक | बाणभट्ट की आत्मकथा लेखक | आ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी भाषा | खड़ी बोली विधा | उपन्यास