पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है

पीछे

पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,
तब, सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नहीं जाता है।
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नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,
दान कवच-कुण्डल का-ऐसा हृदय-विदारक होगा!
मेरे मन का पाप मुझी पर बनकर धूम घिरेगा,
वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर भी आन गिरेगा।  

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |