फुटकल पंक्तियाँ

पीछे

भारतीय किसान के पास ’रोष’ नाम की वस्तु है ही नहीं। वह तो सनातन ’होरी’ है, जो सारी कटुताओं को सदैव निरीह रूप में स्वीकार करता जाता है और अन्त में बिना ’कफन’ के मर जाता है।
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रस-सरस्वती यदि मुक्त-भाव से सब को नहीं बाँटी जाती है तो व्यक्ति की साधना धरी रह जाएगी और एक ओर शहरी ’कल्चर’ अपना असली प्राण-स्रोत खोकर विकृत होगा, दूसरी ओर पल्ली की प्राचीन रसधारा एवं सनातन उल्लास के सूखने पर एक ’वैकुअम’-खाली स्थान-पैदा हो जाएगा।  
 

पुस्तक | प्रिया नीलकण्ठी लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध