झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के

पीछे

सावन-

 

झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के,
छम-छम-छम गिरती बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के !

ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,
जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर-झर !
आँधी हर हर करती, दल मर्मर, तरु चर् चर्,
दिन-रजनी औ‘ पाख बिना तारे-शशि-दिनकर !
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नाच रहे पागल हो ताली दे-दे चल-दल,
झूम-झूम सिर नीम हिलातीं सुख से विह्वल !
हरसिंगार झरते, बेला कलि बढ़तीं पल-पल
हँसमुख हरियाली में खग कुल गाते मंगल !
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रिमझिम-रिमझिम क्या कहते बूँदों के स्वर,
रोम सिहर उठते, छूते वे भीतर अन्तर !
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर,
रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर !

पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन !
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर-फिर आए जीवन में सावन मनभावन !

 

पुस्तक | स्वर्णधूलि कवि | सुमित्रानन्दन पन्त भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | कविता छंद |