परिवर्तन
पीछेकहाँ आज वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल ?
भूतियों का दिगन्त छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल ?
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार ?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गन्ध-विहार)
गूँज उठते थे बारम्बार
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न सुन्दरता थी सुकुमार
ऋद्धि औ‘ सिद्धि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात ?
दुरित, दुख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात।