परिवर्तन

पीछे

कहाँ आज वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल ?
भूतियों का दिगन्त छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल ?
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार ?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गन्ध-विहार)
गूँज उठते थे बारम्बार
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
                 नग्न सुन्दरता थी सुकुमार
ऋद्धि औ‘ सिद्धि अपार!

अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात ?
दुरित, दुख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात।

पुस्तक | पल्लव कवि | सुमित्रानन्दन पन्त भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | लम्बी कविता छंद | रोला