आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना

पीछे

’आलोचना की संस्कृति’ को ठीक से समझने के लिए संस्कृति की आलोचना जरूरी है और संस्कृति की आलोचना का पहला चरण है संस्कृतिवाद की आलोचना।
      संस्कृतिवाद एक ऐसी विचारधारा है जो जीवन की सारी समस्याओं को समेटकर संस्कृति की समस्या बना देती है क्योंकि उसके अनुसार जीवन की तमाम समस्याएँ सिर्फ संस्कृति की समस्याएँ हैं। किंतु संस्कृतिवाद की विचारधारा यहीं नहीं रुकती। इसके बाद वह संस्कृति की अवधारणा को भी संकुचित करती है। इस विचारधारा में अमूर्तन की विशेष भूमिका होती है। संस्कृति एक जीते-जागते क्रिया-व्यापार की जगह कुछ अमूर्त मूल्यों की तालिका बनकर रह जाती है, देश-काल से परे कुछ ऐसी विशेषताएँ जो सार्वभौम और शाश्वत हैं। संस्कृतिवाद की संस्कृति ऐसी अनूठी वस्तु है जिसे किसी मानव-समाज ने नहीं बनाया, बल्कि जो मानव-समाज को बनाती है। ’’मोहि तौ मेरो कवित्त बनावत’’ की तरह। संस्कृतिवाद की विचारधारा के प्रभाव को नष्ट करने के लिए संस्कृति के इस रहस्यवाद और अमूर्तन का विरोध आवश्यक है।
     किंतु संस्कृतिवाद का विरोध करते समय कुछ गलतियों के प्रति सतर्क रहना जरूरी है। आवेश में कभी-कभी संस्कृति मात्र का विरोध होने लगता है। संस्कृति के अमूर्तन का विरोध जरूरी है किंतु उसकी सापेक्ष स्वायत्तता को नकारना गलत है।
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       इसी प्रकार का एक भ्रम यह भी है कि संस्कृति का बुद्धि-विलास विकसित और समृद्ध यूरोप, अमेरिका तथा जापान को मुबारक, एशिया-अफ्रीका-लैटिन अमेरिका के देश फिलहाल संस्कृति की ऐयाशी में अपने सीमित साधनों का अपव्यय नहीं कर सकते। एक तो इस कथन के पीछे स्पष्टतः संस्कृति की अत्यंत सीमित धारणा निहित है। दूसरे, विकास में संस्कृति की सक्रिय भूमिका की कोई पहचान नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों ने सांस्कृतिक चेतना का विकास करके ही साम्राज्यवादी शिकंजे से अपनी राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त की। राष्ट्रीय चेतना के विकास के बिना स्वाधीनता की प्राप्ति असंभव थी, और कहने की आवश्यकता नहीं कि राष्ट्रीय चेतना वस्तुतः एक सांस्कृतिक चेतना है। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद इस सांस्कृतिक चेतना की आवश्यकता कम नहीं हुई है। आर्थिक विकास और जनतांत्रिक राजनीति का विस्तार करने के साथ ही अपनी स्वाधीनता की रक्षा निश्चय ही प्रधान आवश्यकताएँ प्रतीत होती हैं किंतु इन सभी कार्यों को संपन्न करने के लिए देश की जनता को सांस्कृतिक चेतना से लैस करना भी उतना ही आवश्यक है। यदि इस बात पर जोर न दिया गया तो संस्कृति का समूचा मैदान ऐसे तत्वों के हाथ पड़ जाएगा जो किसी-न-किसी तरह संस्कृतिवाद की विचारधारा का ही प्रचार करते हैं। संस्कृतिवाद का जवाब अर्थवाद नहीं है; जवाब है संस्कृति की ऐसी मूलगामी आलोचना जो आलोचना की संस्कृति के मूल अभिप्राय का मायाजाल छिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो।  

पुस्तक | वाद विवाद संवाद लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना