ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा

पीछे

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।

 

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।

 

गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ है वहाँ पर क्या हुआ होगा।

 

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।

 

कई फाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।

 

यहाँ तो सिर्फ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।

 

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।  

पुस्तक | साये में धूप कवि | दुष्यंत कुमार भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गजल छंद |