कैसे मंजर सामने आने लगे हैं

पीछे

कैसे मंजर सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

 

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

 

वे सलीबों के करीब आए तो हमको,
कायदे-कानून समझाने लगे हैं।

 

एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं।

 

मछलियों में खलबली है, अब सफीने,
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं।

 

मौलवी से डाँट खाकर अहले मकतब
फिर उसी आयत को दुहराने लगे हैं।     


अब नयी तहजीब के पेशे-नजर हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।         

पुस्तक | साये में धूप कवि | दुष्यंत कुमार भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गजल छंद |
विषय | आक्रोश,