सन्तप्त
पीछेअपने अतीत का ध्यान
करता मैं गाता था गाने भूले अम्रियमाण !
एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते संचार
उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र झंकार,
विकल वीणा के टूटे तार !
मेरा आकुल क्रन्दन,
व्याकुल वह स्वर-सरित-हिलोर
वायु में भरती करुण मरोर
बढ़ती है तेरी ओर।
मेरे ही क्रन्दन से उमड़ रहा यह तेरा सागर,
सदा अधीर,
मेरे ही बन्धन से निश्चल
नन्दन-कुसुम-सुरभि-मधु-मदिर समीर,
मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
घोर विषाद !
‘‘ओ मेरे ! -मेरे बन्धन-उन्मोचन !
ओ मेरे ! -ओ मेरे क्रन्दन-वन्दन !’’
ओ मेरे अभिनन्दन !
ये सन्तप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृत्तल में तव जैसे शीतल चन्दन !