सन्तप्त

पीछे

अपने अतीत का ध्यान
करता मैं गाता था गाने भूले अम्रियमाण !
एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते संचार
उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र झंकार,
                 विकल वीणा के टूटे तार !
 मेरा आकुल क्रन्दन,
व्याकुल वह स्वर-सरित-हिलोर
वायु में भरती करुण मरोर
     बढ़ती है तेरी ओर।

मेरे ही क्रन्दन से उमड़ रहा यह तेरा सागर,
                          सदा अधीर,
               मेरे ही बन्धन से निश्चल
    नन्दन-कुसुम-सुरभि-मधु-मदिर समीर,

मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
            घोर विषाद !

‘‘ओ मेरे ! -मेरे बन्धन-उन्मोचन !
ओ मेरे ! -ओ मेरे क्रन्दन-वन्दन !’’
            ओ मेरे अभिनन्दन !
ये सन्तप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृत्तल में तव जैसे शीतल चन्दन !        

पुस्तक | अनामिका कवि | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गीत छंद |