वीणावादिनी

पीछे

तव भक्त भ्रमरों को हृदय में लिये वह शतदल विमल
आनन्द-पुलकित लोटता नव चूम कोमल चरणतल।
    बह रही है सरस तान-तरंगिनी,
    बज रही वीणा तुम्हारी संगिनी,
अयि मधुरवादिनि, सदा तुम रागिनी-अनुरागिनी,
भर अमृत-धारा आज कर दो प्रेम विह्वल हृदयदल।
आनन्द-पुलकित हों सकल तव चूम कोमल चरणतल !
       स्वर हिलोरें ले रहा आकाश में,
       काँपती है वायु स्वर-उच्छ्वास में,
ताल-मात्राएँ दिखाती भंग, नव गति, रंग भी
मूर्च्छित हुए से मूर्च्छना करती उठाकर प्रेम-छल।
आनन्द-पुलकित हों सकल तव चूम कोमल चरणतल !  

पुस्तक | अनामिका कवि | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गीत छंद |