प्रगल्भ प्रेम
पीछेआज नहीं है मुझे और कुछ चाह
अर्धविकच इस हृदय-कमल में आ तू
प्रिये, छोड़कर बन्धनमय छन्दों की छोटी राह!
गजगामिनि, वह पथ तेरा संकीर्ण,
कण्टकाकीर्ण,
कैसे होगी उससे पार!
काँटों में अंचल के तेरे तार निकल जायेंगे
और उलझ जायेगा तेरा हार
मैंने अभी-अभी पहनाया
किन्तु नजर-भर देख न पाया-कैसा सुन्दर आया।
मेरे जीवन की तू प्रिये, साधना,
प्रस्तरमय जग में निर्झर बन
उतरी रसाराधना!