स्रवन  सीप  दुइ  दीप  सँवारे

पीछे

नखशिख खण्ड-

स्रवन  सीप  दुइ  दीप  सँवारे। कुंडल  कनक  रचे  उंजियारे।।
मनि  कुंडल  चमकहिं अति लोने। जनु कौंधा लौकहिं दुहुं कोने।।
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं।।
तेहि  पर  खूँट  दीप  दुइ  बारे। दुइ  धुव  दुऔ  खूँट  बैसारे।।
पहिरे  खुंभी   सिंघल  दीपी।  जानहुँ  भरी   कचपची   सीपी।।
खिन खिन  जबहिं चीर  सिर गहा। काँपत बीज  दुहूँ दिसि रहा।।
डरपहिं  देव  लोक  सिंघला।  परै  न  बीज  टूटि  एहि  कला।।
     करहिं नखत सब सेवा स्रवन दिपहि अस दोउ।
     चाँद सुरज अस गहने औरु जगत का कोउ।। 
 

पुस्तक | पद्मावत कवि | मलिक मुहम्मद जायसी भाषा | अवधी रचनाशैली | महाकाव्य छंद | दोहा-चौपाई