ऊधो! जुवतिन ओर निहारौ

पीछे

ऊधो! जुवतिन ओर निहारौ।
तब यह जोग मोट हम आगे हिये समुझि बिस्तारौ।
जे कच स्याम आपने कर करि नितहि सुगंध रचाए।
तिनको तुम जो बिभूत घोरिकै जटा लगावन आए।
जेहि मुख मृगमद मलयज उबटति, छन छन धोवति माँजति।
तेहि मुख कहत खेह लपटावन सो कैसे हम छाजति ?
लोचन आँजि स्यामससि दरसति तबहीं ये तृप्ताति।
सूर तिन्हैं तुम रबि दरसावत यह सुनि सुनि करुआति।।

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद