ऊधो! जोग सुन्यो हम दुर्लभ

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ऊधो! जोग सुन्यो हम दुर्लभ।
आपु कहत हम सुनत अचंभित जानत हौ जिय सुरलभ।
रेख न रूप बरन जाके नहिं ताकौ हमैं बतावत।
अपनी कहो दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत ?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ?
नैन बिसाल भौंह बंकट करि देख्यौ कबहुँ निहारत ?
तन त्रिभंग करि नटवर बपु धरि पीतांबर तेहि सोहत।
सूर स्याम ज्यौं देत हमैं सुख, त्यों तुमको सोउ मोहत।।

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद