ऊधो! हम अजान मति भोरी

पीछे

ऊधो! हम अजान मति भोरी।
जानति है ते जोग की बातें नागरि नवल किसोरी।
कंचन कौ मृग कौनै देख्यो, कौनै बाँध्यो डोरी।
कहु धौं, मधुप! बारि मथि माखन कौने भरी कमोरी।
बिन ही भीत चित्र किन काढ्यो, किन नभ बाँध्यो झोरी।
कहौ कौन पै कढ़त कनूकी जिन हठि भुसी पछोरी।
यह व्यवहार तिहारो, बलि बलि! हम अबला मति थोरी।
निरखहि सूर स्याम मुख बंदहि अँखिया लगनि चकोरी।। 

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद