ऊधो! तुम अति चतुर सुजान

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ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।
जेहि पहिले रँग रँगी स्यामरँग तिन्हैं न चढ़ रँग आन।
द्वै लोचन को बिरद किए स्रुति गावत एक समान।
भेद चकोर किये तिनहू में बिधु प्रीतम, रिपु भान।
बिरहिनि बिरह भजै पा लागों तुम हौ पूरन ज्ञान।
दादुर जल बिनु जिये पवन भखि, मीन तजै हठि प्रान।
बारिजबदन नयन मेरे षटपद कब करिहैं मधुपान।
सूरदास गापीन प्रतिज्ञा, छुवत न जोग बिरान।।     

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद