ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास

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ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास।
कहत सुनत घट प्रान रहत है, हरि तजि भजहु अकास।
बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँड़ि जियन की आस।
दास भाव नहिं तजत पपीहा बरु सहि रहत पियास।
प्रकट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनबास।
सूर स्याम सों दृढ़ब्रत कीन्हों मेटि जगत उपहास।।   

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद