अति मलीन बृषभानुकुमारी

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अति मलीन बृषभानुकुमारी।
हरि स्रमजल अंतर तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर बदन कुम्हिलानो ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।  
हरिसँदेस सुनि सहज मृतक भई इक बिरहिनि दूजे अलि जारी।
सूर स्याम बिनु यों जीवति हैं ब्रजबनिता सब स्यामदुलारी।।

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद