हरि सों भलो सो पति सीता को

पीछे

हरि सों भलो सो पति सीता को।
बन बन खोजत फिरत बंधु संग कियो सिंधु बीता को।
रावन मार्यो, लंका जारी, मुख देख्यो भीता को।
दूत हाथ उन्हैं लिखि न पठायो निगमज्ञान गीता को।
अब धौं कहा परेखो कीजै कुबजा के मीता को।
जैसे चढ़त सबै सुधि भूली, ज्यों पीता चीता को ?
कीन्हीं कृपा जोग लिखि पठयो, निरखु पत्र री! ताको।
सूरजदास प्रेम कह जानै लोभी नवनीता को।। 

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद