प्रकृति जोइ जाके अंग परी

पीछे

प्रकृति जोइ जाके अंग परी।
स्वानपूँछ कोटिक जो लागे सूधि न काहु करी।
जैसे काग भच्छ नहिं छाड़ै जनमत जौन घरी।
धोए रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी।
ज्यों अहि डसत उदर नहिं पूरत ऐसी धरनी धरी।
सूर होउ सो होउ सोच नहिं, तैसे हैं एउ री।।

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद