अन्त तें न आयो याही गाँवरे को जायो

पीछे

अन्त तें न आयो याही गाँवरे को जायो,
    माई बावरे जिवायो प्याइ दूध बारे बारे को।
सोई रसखानि पहिचानि कानि छाड़ि चाहै,
         लोचन नचावत नचैया द्वारे द्वारे को।
भैया की सौं सोच कछू मटकी उतारे को न,
      गोरस के ढारे को न चीर चीर डारे को।
यहै दुख भारी गहै डगर हमारी माझ,
          नगर हमारे ग्वाल बगर हमारे को। 
 

पुस्तक | सुजान रसखान कवि | रसखान भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | घनाक्षरी