रे अश्वसेन! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी
पीछेराधेय जरा हँसकर बोला,
‘‘रे कुटिल! बत क्या कहता है?
जय का समस्त साधन नर की
अपनी बाँहों में रहता है।
उस पर भी साँपों से मिलकर
मैं मनुज, मनुज से युद्ध करूँ?
जीवन भर जो निष्ठा पाली,
उससे आचरण विरुद्ध करूँ?
तेरी सहायता से जय तो मैं
अनायास पा जाऊँगा,
आनेवाली मानवता को,
लेकिन, क्या मुख दिखलाऊँगा?
संसार कहेगा, जीवन का
सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया;
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का
पापी ने साहाय्य लिया।
रे अश्वसेन! तेरे अनेक
वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत
बसते पुर-ग्राम-घरों में भी।
ये नर-भुजंग मानवता का
पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिय नीच
साहाय्य सर्प का लेते हैं।
ऐसा न हो कि इन साँपों में
मेरा भी उज्ज्वल नाम चढ़े।
पाकर मेरा आदर्श और
कुछ नरता का यह पाप बढ़े।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु
सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता
इस जीवन भर ही तो है।
अगला जीवन किसलिए भला,
तब हो द्वेषान्ध बिगाडूँ मैं?
साँपों की जाकर शरण
सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूँ मैं?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु,
मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलंक,
अपने पर नहीं लगा सकता।’’