चल रहा महाभारत का रण, जल रहा धरित्री का सुहाग

पीछे

पर नहीं, मरण का तट छूकर,
             हो उठा अचिर अर्जुन-प्रबुद्ध;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण
             के साथ मचाने द्विरथ-युद्ध।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों,
             करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खड़ी,
             लेकिन दोनों की जीत हार।


इस ओर कर्ण मार्तण्ड-सदृश,
             उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय,
             हो उठा समर में मूर्तिमान।
जूझना एक क्षण छोड़, स्वतः;
             सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी
             दो शितिकण्ठों का विकट युद्ध।

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चल रहा महाभारत का रण,
            जल रहा धरित्री का सुहाग,
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही
            नर के भीतर की कुटिल आग।
बाजियों-गजों की लोथों में
            गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,
बह रहा चतुष्पद और द्विपद 
           का रुधिर मिश्र हो एक संग।


गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर-से
           लिये रक्त-रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौन्तेय-कर्ण
           क्षण-क्षण करते गर्जन गभीर।
दोनों रणकुशल धनुर्धर नर,
           दोनों समबल, दोनों समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोघ
           थी विशिख-वृष्टि हो रही व्यर्थ। 

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |
विषय | युद्ध,