कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं

पीछे

‘‘कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,
भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं।
गयी एकघ्नि तो सब कुछ गया क्या?
बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या?


समर की शूरता साकार हूँ मैं,
महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।
विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,
कवच है आज तक का धर्म मेरा।’’   

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‘‘जगी, बलिदान की पावन शिखाओ,
समर में आज कुछ करतब दिखाओ।
नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,
धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो।


मचे भूडोल प्राणों के महल में,
समर डूबे हमारे बाहु-बल में।
गगन से वज्र की बौछार छूटे,
किरण के तार से झंकार फूटे।


चलें अचलेश, पारावार डोले,
मरण अपनी पुरी का द्वार खोले।
समर में ध्वंस फटने जा रहा है,
महीमण्डल उलटने जा रहा है।


अनूठा कर्ण का रण आज होगा,
जगत् को काल-दर्शन आज होगा।
प्रलय का भीम-नर्तन आज होगा,
वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा।


विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,
नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा।
गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,
जयी कुरुराज लौटेगा समर से।


बड़ा आनन्द उर में छा रहा है,
लहू में ज्वार उठता जा रहा है।
हुआ रोमांच यह सारे बदन में,
उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में।


अहा! भावस्थ होता जा रहा हूँ,
जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ?
बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,
सजाओ, शल्य! मेरा रथ सजाओ।’’  

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |
विषय | उत्साह,