मही का सूर्य होना चाहता हूँ

पीछे

‘‘मही का सूर्य होना चाहता हूँ,
विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।
समय को चाहता हूँ दास करना,
अभय हो मृत्यु का उपहास करना।


भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,
हिमालय को उठाना चाहता हूँ,
समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,
धरा हूँ चाहता श्री को करों से।


ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,
हथेली पर नचाना चाहता हूँ;
मचलना चाहता हूँ धरा पर मैं,
हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।


समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,
धधक कर आज जीना चाहता हूँ;
समय को बन्द करके एक क्षण में,
चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं।


असम्भव कल्पना साकार होगी,
पुरुष की आज जयजयकार होगी!
समर वह आज ही होगा मही पर,
न जैसा था हुआ पहले कहीं पर। 

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |