महाभारत मही पर चल रहा है

पीछे

महाभारत मही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।
मनुज ललकारता फिरता मनुज को,
मनुज ही मारता फिरता मनुज को।


पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,
सहेली सर्पिणी की हो चुकी है।
न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,
निगल ही जायगी सद्धर्म को वह।

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |
विषय | युद्ध,