निशा बीती, गगन का रूप दमका

पीछे

निशा बीती, गगन का रूप दमका,
किनारे पर किसी का चीर चमका।
क्षितिज के पास लाली छा रही है,
अतल से कौन ऊपर आ रही है?


सँभाले शीश पर आलोक-मण्डल,
दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल,
किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी,
शिशिर-कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,


खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन,
कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन,
दिवस की स्वामिनी आयी गगन में,
उड़ा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में।  

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |