जब लोभ सिद्धि का आँखों पर, माँड़ी बन कर छा जाता है

पीछे

जो जहर हमें बरबस उभार,
               संग्राम-भूमि में लाता है,
सत्पथ से कर विचलित अधर्म
               की ओर वही ले जाता है।

 

साधना को भूल सिद्धि पर जब
              टकटकी हमारी लगती है,
फिर विजय छोड़ भावना और
              कोई न हृदय में जगती है।
तब जो भी आते विघ्न रूप,
              हो धर्म, शील या सदाचार,
एक ही सदृश हम करते हैं
              सबके सिर पर पाद-प्रहार।
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जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,
              छोटी बातों का ध्यान करे?
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जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,
              माँड़ी बन कर छा जाता है
तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े
              दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।  

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |