है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो जीवन भर चलने में है।
पीछेहै धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो
जीवन भर चलने में है।
फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति
दीपक समान जलने में है।
यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त
हो जाती परतापी को भी,
सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;
मिल जाते हैं पापी को भी।
इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो
सदा निहित, साधन में है,
वह नहीं किसी भी प्रधन-कर्म,
हिंसा, विग्रह या रण में है।
तब भी जो नर चाहते, धर्म,
समझे मनुष्य संहारों को,
गूँथना चाहते वे, फूलों के
साथ तप्त अंगारों को।
हो जिसे धर्म से प्रेम कभी
वह कुत्सित कर्म करेगा क्या?
बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर
मारेगा और मरेगा क्या?
पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी
तक भी खोटे के खोटे हैं,
हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर
लेकिन, छोटे के छोटे हैं।