थे जहाँ सहस्रों वर्ष पूर्व, लगता है वहीं खड़े हैं हम
पीछेथे जहाँ सहस्रों वर्ष पूर्व,
लगता है वहीं खड़े हैं हम।
है वृथा गर्व, उन गुफावासियों से
कुछ बहुत बड़े हैं हम।
अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो
किटकिटा नखों से, दाँतों से,
या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित
वज्रीकृत हाथों से;
या चढ़ विमान पर नर्म मुठ्ठियों से
गोलों की वृष्टि करो,
आ जाय लक्ष्य में जो कोई,
निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।
ये तो साधन के भेद, किन्तु,
भावों में तत्व नया क्या है?
क्या खुली प्रेम की आँख अधिक?
भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है?
झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर-बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।