राधेय सान्ध्य पूजन में ध्यान लगाये

पीछे

राधेय सान्ध्य पूजन में ध्यान लगाये,
था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये।
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
दीपित ललाट अपरार्क-सदृश लगता था।

 

मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
हो बैठ गया, सचमुच ही, सिमट विभाकर।
अथवा मस्तक पर अरुण देवता कोले,
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले!

 

या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
हों सजा रहीं आरती विभा-मण्डल की।
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
मैनाक शैल हो खड़ा बाहु फैला कर।

 

सुत की शोभा को देख मोद में फूली,
कुन्ती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली।
भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,
वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को।  

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |