उड़ते जो झंझावातों में

पीछे

‘‘उड़ते जो झंझावातों में,
पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
                        वे ही फणिबन्ध छुड़ाते हैं,
                        धरती का हृदय जुड़ाते हैं।’’ 

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |