प्रासादों के कनकाभ शिखर

पीछे

‘‘मुझ-से मनुष्य जो होते हैं,
क्ंचन का भार न ढोते हैं।
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को।
                    जग से न कभी कुछ लेते हैं,
                    दान ही हृदय का देते हैं।
प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ न होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।
                    बसता वह कहीं पहाड़ों में,
                    शैलों की फटी दरारों में।   

पुस्तक | रश्मिरथी कवि | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद |