मैत्री की बड़ी सुखद छाया
पीछे‘‘मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है,
खुद आप नहीं कट जाता है।
जिस नर की बाँह गही मैंने,
जिस तरु की छाँह गही मैंने,
उसपर न वार चलने दूँगा,
कैसे कुठार चलने दूँगा ?
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा।