हम तो कान्ह केलि की भूखी

पीछे

हम तो कान्ह केलि की भूखी।
कैसे निरगुन सुनहि तिहारी बिरहिनि बिरह बिदूखी।
कहिए कहा यहौ नहिं जानत काहि जोग है जोग।
पा लागों तुमहीं सो वा पुर बसत बावरे लोग।
अंजन, अभरन, चीर, चारु बरु नेकु आप तन कीजै।
दंड, कमंडल, भस्म, अधारी जो जुबतिन को दीजै।
सूर देखि दृढ़ता गोपिन की ऊधो यह ब्रत पायो।
कहै कृपानिधि हो कृपाल हो ! प्रेमै पढ़न पठायो।। 

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद