हरि काहे के अंतर्जामी

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हरि काहे के अंतर्जामी ?
जौ हरि मिलत नाहिं यहि औसर, अवधि बतावत लामी।
अपनी चोप जाय उठि बैठे और निरस बेकामी।
सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरुड़ागामी।
आई उघरि प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी।
सूर इते पर अनख मरति हैं ऊधो, पीवत मामी।।

पुस्तक | सूरसागर (भ्रमरगीतसार) कवि | सूरदास भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद