मकराकृति गोपाल कैं

पीछे

1.    बहके, सब जिय की कहत, ठौरु कुठौरु लखैं न।
        छिन औरै, छिन और से, ए छबि छाके नैन।। 

 

2.    फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टुटी लाज की लाव।
        अंग-अंग-छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव।। 

 

3.    कीनैं हूँ कोरिक जतन अब कहि काढ़ै कौनु।
        भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।। 

 

4.    साजे मोहन-मोह कौ, मोही करत कुचैन।
        कहा करौं, उलटे परे टोने लोने नैन।। 

 

5.    मकराकृति गोपाल कैं सोहत कुंडल कान।
        धर्यौ मनौ हिय-धर समरु, ड्यौढ़ी लसत निसान।। 
 

पुस्तक | बिहारी सतसई कवि | बिहारीलाल भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | दोहा