कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छाँह

पीछे

1.    कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छाँह।
        रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह।। 


2.    कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
        तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय।। 


3.    खैंचि चढ़नि, ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति।
        आज काल मोहन गही, बंस दिया की रीति।। 


4.    जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
        रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं।। 


5.    प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं।
        रहिमन मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पाठक माहिं।। 

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