मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेसे

पीछे

मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेसे।
एक लहर उठ-उठ कर फिर-फिर
ललक-ललक तट तक जाती है,
किंतु उदासीना युग-युग से 
भाव-भरी तट की छाती है,
                     भाव-भरी यह चाहे तट भी 
                     कभी बढ़े, तो अनुचित क्या है ?
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेसे।
जाहिर और अजाहिर दोनों
विधि मैंने तुझको आराधा,
रात चढ़ाए आँसू, दिन में
राग रिझाने को स्वर साधा,
                     मेरे उर में चुभती प्रतिध्वनि
                     आ मेरी ही तीर सरीखी,
पीर बनी थी गीत कभी, अब गीत हृदय के पीर बने-से।
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेसे।

पुस्तक | प्रणय-पत्रिका कवि | हरिवंशराय बच्चन भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गीत छंद |